
Indore Lok Sabha Seat: इंदौर लोकसभा सीट पर 1989 से भाजपा का कब्जा है। कांग्रेस ने इन 35 साल में कई प्रयोग किए। 2019 तक तो सुमित्रा महाजन जीतती रही। उनके बाद शंकर लालवानी ने अब तक की सबसे बड़ी जीत हासिल की।
क्षत्रपों की पैंतरेबाजी, स्थानीय दिग्गजों की आपसी लड़ाई और संगठन पर वर्चस्व की होड़ के चलते इंदौर बीते 35 साल में कांग्रेस के लिए राजनीतिक प्रयोग का बड़ा केंद्र बन गया है। 1989 में यहां कांग्रेस का दबदबा खत्म होने की शुरुआत हुई और अब यहां पार्टी को सबसे बुरा समय देखना पड़ रहा है।
इस बार फिर कांग्रेस ने यहां नया प्रयोग किया है। बड़े नेताओं के पैर पीछे खींचने के बाद इस बार अक्षय कांति बम को वर्तमान सांसद शंकर लालवानी के सामने दांव पर लगाया गया है। प्रयोग का यह सिलसिला कांग्रेस ने ललित जैन के साथ शुरू किया था। फिर यह मधुकर वर्मा, पंकज संघवी, महेश जोशी, रामेश्वर पटेल से होते हुए सत्यनारायण पटेल तक पहुंचा था। हर चुनाव में यहां पार्टी का नजरिया अलग रहा। कभी भी यह कोशिश नहीं हुई कि पिछली हार से सबक लेकर पार्टी जीत के लिए एकजुट हो।
कांग्रेस नेताओं के कारण ही जीते थे दाजी
1962 में जब कॉमरेड होमी दाजी ने इंदौर में कांग्रेस का रास्ता रोका था। तब भी उसका कारण कांग्रेस नेता ही थे। तब यहां लड़ाई कांग्रेस बनाम जनसंघ नहीं, बल्कि इंटक बनाम कांग्रेस हुई थी। रामसिंह भाई वर्मा से खौफ खाने वाले उस जमाने के तमाम कांग्रेसी दिग्गज चुनाव में परदे के पीछे दाजी के पैरोकार बने थे। वर्मा तब मात्र 6,293 वोट से चुनाव हारे थे।
जनता लहर में बाहरी बनाम स्थानीय
1977 में जनता पार्टी की लहर थी। प्रकाशचंद सेठी मुकाबले में थे नहीं और तब भी यहां इंटक के दबदबे को देखते हुए कांग्रेस ने सेठी के विकल्प के तौर पर इंटक के दिग्गज नेता शाजापुर निवासी नंदकिशोर भट्ट को मैदान में उतारा था। तब कल्याण जैन जनता पार्टी के उम्मीदवार थे। लहर के साथ ही इस चुनाव ने स्थानीय बनाम बाहरी का रूप भी लिया और नतीजा जैन के पक्ष में रहा। जैन 1972 में सेठी के मुख्यमंत्री बनने के कारण हुए उपचुनाव में रामसिंह भाई वर्मा से मात्र 15611 मतों से हारे थे।
विकल्प नहीं ढूंढ पाए और हार गए
1984 में जब प्रकाशचंद सेठी राजेंद्र धारकर को हराकर चुनाव जीते थे तब यह माना गया था कि यह अब उनका अंतिम चुनाव होगा। 1989 में जब किसी नए चेहरे को मौका देने के बजाय पार्टी ने फिर उन्हें मैदान में उतारा तो जनता के बीच उनकी छवि एक थके हुए नेता की बनी। मुकाबले में सुमित्रा महाजन के आने पर कांग्रेस को यह आस बंधी थी कि नए-नवेले चेहरे के सामने सेठी जैसे कद्दावर नेता फिर चुनाव जीत जाएंगे। जो सेठी दाजी के खिलाफ चुनाव लड़ते हुए घर-घर जनसंपर्क करने पहुंचे थे वे अब चुनाव प्रचार के दौरान गाड़ी पर बैठे-बैठे ही सो जाते थे। जनता के बीच इस बार उनकी स्वीकार्यता नहीं बन पाई और चौंकाने वाले नतीजे में सुमित्रा महाजन ने उन्हें शिकस्त दी।
ताकतवर लॉबी के प्रत्याशी थे जैन
1991 में ललित जैन कांग्रेस के उम्मीदवार थे। वे तब मालवा की राजनीति में ताकतवर एक घराने के उम्मीदवार माने गए थे। इनका पूरा चुनाव कांग्रेस की बजाय इसी घराने ने लड़ा और जैन जनता तो दूर पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच स्वीकार्यता नहीं बना पाए। इस चुनाव में कांग्रेस के एक बड़े वर्ग ने जैन को निपटाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी।
वर्मा को मैदान में लाकर वॉकओवर ही दे दिया
यहां के क्षत्रपों की लड़ाई में 1996 में नया प्रयोग हुआ। तब महेश जोशी ने तत्कालीन महापौर मधुकर वर्मा को उम्मीदवार बनवा दिया। तिवारी कांग्रेस से अनिल शाखी भी मैदान में थे। चूंकि, वर्मा जोशी के उमीदवार थे, इसलिए कांग्रेसी पीछे हट गए। पार्टी के लोगों ने इस चुनाव को गंभीरता से लिया ही नहीं।
संघवी ने किला लड़ाया पर दूसरी बार बुरी तरह हारे
1998 में पंकज संघवी तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजयसिंह की इच्छा न होने के बाद भी टिकट ले आए थे। दिग्विजय तब सत्यनारायण पटेल को टिकट दिलवाना चाहते थे। संघवी के लिए पार्टी के ज्यादातर लोग भी लगे और निजी टीम भी। उन्होंने चुनाव रणनीति और दमदारी से लड़ा और महाजन के लिए खासी परेशानी खड़ी कर दी। इसके बाद भी जीत नहीं सके। संघवी को 2019 में एक बार फिर मौका मिला लेकिन तब रिकॉर्ड अंतर से चुनाव हारे। इंदौर के इतिहास में लोकसभा चुनाव में यह सबसे करारी शिकस्त थी।
जोशी को सबने मिलकर निपटाया
1980 में महेश जोशी लोकसभा का टिकट लाते-लाते रह गए थे। इसके बाद उन्हें 1999 में मौका मिला। तब भी दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे और दिग्विजय ने इंदौर के मामले में जोशी को फ्री-हैंड दे रखा था। तब भाजपा में ताई को लेकर भी भारी अंतर्कलह था। कांग्रेस फायदा उठाने की स्थिति में थी पर जोशी के बढ़ते कद पर अंकुश लगाने का इससे अच्छा मौका कांग्रेसियों को फिर मिलने वाला नहीं था। सबने मिलकर उन्हें निपटा दिया।
पटेल औपचारिकता पूरी करने के लिए लड़े
महेश जोशी जैसे कद्दावर नेता की हार के बाद कांग्रेस के पास कोई विकल्प नहीं था। कांग्रेस प्रदेश में भी चुनाव हार चुकी थी। ऐसे में रामेश्वर पटेल को उम्मीदवार बनाया गया। उन्हें भी 1993 की विधानसभा चुनाव की हार के बाद पुनर्वास का इंतजार था। वे चुनाव लड़े पर बेमन से। पार्टी भी छिन्न-भिन्न थी। 2003 की विधानसभा चुनाव की हार के सदमे से उबर नहीं पाई थी। नतीजा रहा कि पटेल 1,93,936 मतों से हारे।
बेटा कुछ तो हिसाब बराबर कर पाया
2009 में सत्यनारायण पटेल को कांग्रेस मैदान में लेकर आई। वे 2003 का विधानसभा चुनाव हारे ही थे। यह चुनाव भाजपा बनाम कांग्रेस नहीं, बल्कि सुमित्रा महाजन बनाम कैलाश विजयवर्गीय था। पटेल को कांग्रेस से ज्यादा मदद भाजपा से मिली और वे जीत के नजदीक आते-आते रह गए। भाजपा का दम था इसलिए कांग्रेस ने भी पटेल के लिए पूरी ताकत झोंकी पर बात नहीं बनी। 2014 में सत्यनारायण पटेल एक बार फिर मैदान में थे लेकिन इस बार उन्हें सुमित्रा महाजन के हाथों करारी शिकस्त मिली।