
गांव के अधिकतर लोगों का कहना है कि विस्थापन स्थल पर जो जगह दी जा रही वह बहुत कम है। मुआवजा वर्ष 2017 के अनुसार दिया, जो बच्चे 18 वर्ष के हो गए थे, उन्हें ही दिया गया, लेकिन इस अंतराल में ऐसे कई बच्चे हो गए जो 18 साल के होने के बाद शादी-शुदा भी हो गए।
कड़ान-सतगढ़ परियोजना के तहत डूब में आए आदिवासी बहुल खानपुर गांव में अजीब तरह का संन्नाटा है। यहां के लोगों के चेहरे पर विस्थापन का दर्द साफ झलक रहा है। प्रशासन ने गांव में जगह-जगह तीन महीने के अंदर मकान खाली करने के नोटिस चस्पा कर दिए हैं। विस्थापितों को मुआवजा दो साल पहले ही दे दिया गया था। अब जमीन के पट्टे भी लोगों को मिल गए हैं।
कुछ लोगों ने अपने टूटे-फूटे मकान से छप्पर उतारना शुरू कर दिया हैं। लेकिन, नई जगह बसेरा होने से इनके चेहरों पर मायूसी छाई हुई है। उनका कहना है कि उन्हें खानपुर से करीब दो किमी दूर सिलेरा गांव में सिद्ध बाबा मंदिर के पास पट्टे दिए गए हैं। यहां, हमारा परिवार ही मुश्किल से रह सकता है। ऐसे में हम अपने मवेशी गाय, भैंस और बकरियां कहां रखेंगे। गांव के अधिकतर परिवारजनों का कहना है कि हम जंगल से जुड़े हैं। जंगल से मिलने वाली औषधियां तोड़कर लाते हैं, जिन्हें बेचकर आजीविका चलाते हैं। जंगल छूटने से हमारा रोजगार भी छिन जाएगा।
घर बनाने रुपये ही नहीं बचे, बगैर सहायता के काम मुश्किल
गांव के अधिकतर लोगों का कहना है कि विस्थापन स्थल पर जो जगह दी जा रही वह बहुत कम है। मुआवजा वर्ष 2017 के अनुसार दिया, जो बच्चे 18 वर्ष के हो गए थे, उन्हें ही दिया गया, लेकिन इस अंतराल में ऐसे कई बच्चे हो गए जो 18 साल के होने के बाद शादी-शुदा भी हो गए। उनके यहां परिवार तो बढ़ गए लेकिन पट्टा नहीं बढ़ा। जो जगह दी है वह 6 मीटर चौड़ी और 15 मीटर लंबाई का प्लाट है। इसमें दो परिवार कैसे अपना मकान बनाएंगे। गाय-भैंस कहां रखेंगे और उनके लिए भूसा रखने और गोबर डालने के लिए भी जगह की जरूरत होगी।
नौ भाई बहनों में तीस लाख मिले, पूरे खर्च हो
गांव के तुलसीराम आदिवासी का कहना है कि उनके यहां पैतृक तीन एकड़ से भी कम जमीन थी। जमीन सहित मकानों के 30 लाख रुपये मिले थे, जो सभी नौ भाई बहनों में बंट गए। सभी के हिस्से में तीन से साढ़े तीन रुपये आए। पट्टे देने में देर की गई, इससे यह राशि खर्च हो गई। मेरे दो बेटे हैं। लेकिन, पट्टा मेरे नाम ही दिया गया है। 2017 में जो बच्चे 18 साल से छोटे थे, अब उनके भी परिवार हैं। ऐसे में एक पट्टे पर तीन परिवारों को बसाना मुश्किल है।
तुलसीराम आदिवासी, विस्थापित ग्रामीण
पैसे आए तो बेटे ने वाहन पर खर्च कर दिए
मुआवजा के रूप में केवल घर की ही राशि मिली थी। घर में चार बेटे हैं, चारों के चारों बेरोजगार। रुपये आते ही विस्थापन के पहले बच्चों ने स्वरोजगाार के लिए चार पहिया वाहन खरीद लिया। सारी जमा पूंजी उसी में चली गई। अब हाथ में एक रुपये नहीं बचे। बरसात के पहले ही गांव खाली करना है। ऐसे में विस्थापित स्थल पर आवास कैसे बनेगा, यही चिंता सता रही है। यहां घर जंगल से लगा है, उससे बहुत आजीविका चल जाती है। वहां नए सिरे से जिंदगी शुरू करनी पड़ेगी।
कुसुमरानी आदिवासी, विस्थापित ग्रामीण
विस्थापन के दर्द ने ली बेटे की जान
मुआवजा में जो रुपये मिले थे, उसे बैंक में जमा कराया था। बेटे ने अनाप-शनाप राशि खर्च कर दी। जब रुपये खर्च हो गए तो सदमे में रहने लगा, जिससे उसकी मौत हो गई। अब परिवार के पास कुछ नहीं है। नए जगह कैसे घर बनेगा, कैसे गृहस्थी चलेगी, यही चिंता सता रही है।
हल्काई आदिवासी, विस्थापित ग्रामीण
पशुपालन के अलावा कुछ नहीं किया
जब से आंख खुली हम खानपुर में ही हैं। बचपन से पशुपालन कर रहे हैं। एक दर्जन मवेशी पाले हुए हैं। पूरे परिवार की आजीविका इसी से चल रही हैं। सरकार ने घर बनाने पट्टे तो दे दिया, लेकिन एक दर्जन मवेशी कहां रखेंगे, यह चिंता बनी हुई है। हमें जो जमीन का मुआवजा मिला वह बहुत कम हैं। विस्थापित गांवों के आसपास उससे चार से पांच गुना दाम में जमीन मिल रही हैं। मेरी तरह सभी गांववालों की यही समस्या है।
नथन सिंह ठाकुर, विस्थापित ग्रामीण