
15 वर्ष की आयु में डॉ. सत्येंद्र जैन ने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया था। अब 25 वर्ष की आयु में उन्होंने मांगा नहीं, फिर भी आचार्य श्री ने उन्हें पिच्छिका प्रदान की है।
दमोह जिले के कुंडलपुर में आयोजित होने जा रहे आचार्य पद पदारोहण के दौरान आचार्यश्री के शिष्यों से जुड़े कई किस्से सामने आ रहे हैं। आचार्यश्री विद्यासागर महाराज ने वर्ष 1992 में कुंडलपुर में चुतार्मास के दौरान सागर में जन्मे और दमोह निवासी डॉ. सत्येंद्र जैन को बिना मांगे ही अपनी पिच्छी प्रदान की। यह पिच्छी उनके आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत एवं धर्म के प्रति आस्था को लेकर प्रदान की थी।
शाम के बाद किया भोजन का त्याग
डॉ. सत्येंद्र जैन ने बताया कि उन्होंने पिच्छिका मिलने के पूर्व ही आजीवन ब्रम्हचर्य व्रत ले लिया था। वह शाम के बाद चाहे कितनी भी भूख, प्यास लगे, लेकिन वह रात में कभी पानी भी नहीं पीते। जमीन से नीचे पैदा होने वाली सब्जियों जैसे आलू,लहसुन, प्याज चुकंदर आदि का त्याग किया है। केवल तीन घंटे ही नींद लेते हैं। डॉ. सत्येंद्र जैन ने बताया कि गुरुदेव आचार्यश्री विद्यासागर महाराज का सन 1976 में कुंडलपुर में जब प्रथम आगमन हुआ था। उस समय मैं अपने ननिहाल पटेरा में था। मेरे नाना स्व. रूपचंद सिंघई कुंडलपुर कमेटी में थे। उसी समय मुझे मेरे नानाजी के साथ आचार्यश्री के प्रथम दर्शन करने का सौभाग्य मिला। उस समय मेरी उम्र लगभग साढ़े आठ वर्ष की थी। आचार्यश्री को देखकर मुझे ऐसा अनुभव हुआ कि जैसे में उन्हें पहचानता हूं। उस समय आचार्यश्री का कुंडलपुर, पटेरा व हटा में अधिक समय रहना हुआ तो मुझे उनका बहुत सानिध्य मिला। उस समय गुरुदेव लेखन कार्य अधिक करते थे। मैं भी चुपचाप उनके पास बैठा देखता रहता था। उन्होंने कभी भी मुझे अपने लेखन कार्य में बाधक नहीं समझा। इस तरह से मेरा उनसे लगाव बढ़ता रहा। चूंकि, मेरी मां के संस्कार भी बहुत धार्मिक थे। उनके संस्कारों का गहरा प्रभाव मुझ पर पड़ा।
डॉ. सत्येंद्र जैन ने कहा कि जहां-जहां उनका चातुर्मास हुआ, मैं अपनी मां के साथ उनके पास जाता रहा। धीरे-धीरे जीवन के प्रति क्षणभंगुरता का मुझे आभास होता रहा। आचार्यश्री की प्रेरणा से मैने बचपन में ही शास्त्रों का अध्ययन किया। जब आचार्यश्री का गमन श्री सम्मेद शिखरजी की यात्रा के लिए हो रहा था। उस समय मैं कक्षा 10वीं में पढ़ता था। उसी समय दिसंबर 1982 में आचार्यश्री का आगमन दमोह नगर में हुआ। तब मेरे मन में आया कि मैं अपने जीवन को संयम की तरफ बढांऊ और मैंने आचार्यश्री से व्रत लेने की शुरुआत की। उस समय मैंने आजीवन रात्रि भोजन का त्याग किया और निवेदन किया कि मुझे ब्रह्मचर्य व्रत चाहिए। उस समय आचार्यश्री ने मुझे पांच साल का व्रत दिया। मेरा यह व्रत आगे बढ़ता रहा। 1989 में मुझे एक दिव्य स्वप्न के माध्यम से प्रेरणा मिली। तब मैंने आचार्यश्री से निवेदन किया और आचार्य श्री ने मुझे आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत प्रदान किया। उन्होंने बताया कि जब वह 11 माह के थे, तब उनके पिताजी का निधन हो गया था। उनकी मां कमला देवी एवं बहन साधना दीदी ने भी आजीवन व्रत ग्रहण किया था। इनके परिवार को लगभग 39 बार आचार्य श्री जी को नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान का सौभाग्य मिला था।
25 वर्ष की उम्र में आचार्यश्री ने प्रदान की पिच्छी
1992 में कुंडलपुर में आचार्यश्री का चार्तुमास चल रहा था। उस समय मैं सागर विश्वविद्यालय से भूगर्भ विज्ञान विषय से एम-टेक के बाद पीएचडी कर रहा था। मेरी उम्र 25 वर्ष की थी। मैं अपनी मां एवं बहन के साथ कुंडलपुर में था। तब पूज्य आचार्यश्री ने मुझे, मेरी मां एवं बहन को बुलाया और मेरे मांगे बिना ही हम तीनों को अपनी पिच्छिका प्रदान की। यह दिन हमारे परिवार के लिए सबसे बड़े सौभाग्य का दिन था। सागर विश्वविद्यालय से पीएचडी के बाद गुरु आज्ञा से मैने भोपाल, छतरपुर फिर सागर विश्वविद्यालय के व्यावहारिक भू विज्ञान विभाग में 1998 से लगातार लगभग 15 वर्ष अध्यापन करने के बाद मां और बहन की अस्वस्थता के कारण अध्यापन छोड़ा। फिर बहन की अचानक कुंडलपुर में समाधि हो गई। आचार्य के बताए गए समाज और देश हित के कार्यों के साथ धर्म के मार्ग पर लग गया, जो आज भी निरंतर जारी है।
क्या होती है पिच्छिका
डॉ. सत्येंद्र जैन ने बताया कि जैन साधु-साध्वी की शोभा पिच्छिका से ही होती है। जो मोर द्वारा स्वत: त्यागे गए पंख से बनी होती है। जो इतनी सुकोमल व मृदु होती है कि उससे किसी भी जीव को नुकसान नहीं पहुंचाता। डॉ. सत्येन्द्र जैन मध्यप्रदेश विधिक सेवा प्राधिकरण जबलपुर द्वारा अनुशंसित प्रशिक्षित मिडियेटर, दमोह जिले में डायल 100, वन स्टॉप सेंटर, ग्रामीण न्यायालय और उपभोक्ता प्रतितोषण में काउंसलर भी है।